Sunday, August 31, 2008

क्या सम्पादक दलाल होते हैं?

शायद यह सवाल आप को परेशान करे लेकिन मैं भी परेशान हुँ कि शायद कहीं सम्मान जनक पेशे के सौदागरो को भी इस इल्ज़ाम से अपनी पोल खुलती नज़र आए और वह अपने अन्दर सुधार की बात सोचें.

समाज को सही रासता दिखाने वाला और समाज में हो रही किसी गलत काम पर लगाम लगाने वाला जब खुद ही इस तरह के काम पर ऊतारु हो जाए तो अफसोस होता ही है. बल्कि सम्मान जनक पेशे में शामिल व्यक्ती को सौदागर और दलाल तक कहने के लिए मजबूर होना पड़ता है. यह शब्ज के चुनाव पर हमें निजी तौर पर अफसोस है.

आप देखेंगे के हर अख़बार के सम्पादक को मोटी रकम दी जाती जाती है. लेकिन अख़बार में करने वाले छोटे पत्रकारो एवं सब ऐडिटरो को बहुत कम पैसे दिए जाते हैं. कारण यह नही है कि मैनेजमेंट उम्हे कम पेसे देना चाहता है. बल्कि अख़बार का सम्पदक यह कहता है कि काम कैसे कराना है (यामी कम पैसे में) यह हम तैय करेंगे.

उस समय सम्पादक के ज़ेहन मे यह बात कतई नही आती के अफसर और नौकर की ही तरह यहाँ भी तनख़ाह का पैमाना रखा जाए.

आप को याद होगा के छठे वेतन आयोग ने तनखाहो का जो नया पैमाना तैय किया है उस के मुताबिक एक सबसे छोठे दर्जे के मुलाजिन को अगर 10,000 तनखाह दी जाएगी तो सबसे बड़े अफसर को उससे दस गुणा एक लाख की तनखाह दी जाएगी.
इस पर कई अखबारो नें अपनी चिनता जताइ थी और उसे ऊचनीच बढ़ाने वाला कहा था.

लेकिन उन्हे अपने यहॉ की खाई का ख्याल तक नहीं आता. एक अखबार में जो तन्खाह एक पत्रकार को मिलती है उससे 25 गुणा ज़्यादा तन्खाह सम्पादक को मिलती है. कारण साफ है कि सम्पादक एक दलाल की भुमिका में आ जाता है और वह मेनैंजनेट को कहता है कि चिनता छोड़ो पाँच बड़े अधिकारियो को इतनी रकम दो. बाकी को हम देखेगे और मैं अख़बार चला दुंगा. और इस तरह एक नौकर की तन्खाह पर पत्रकार काम करने को मजबुर हो जाता है.

आप बताए ऐसे सम्पादक को आप क्या कहेंगे?

Saturday, August 30, 2008

क्या बिहारी समाज एक करुर समाज है?

बिहार में बाढ़ की त्रासदी अपरिहार्य तौर पर एक बड़ी वीपत्ती है. सरकारी सहायता की कमी, नेपाल से पानी छोड़े जाने की जानकारी पहले से नहीं मुहिया करना से लेकर राजनैतिक पारट्रियो की आपसी रश्सा कशी निंदनीय है. लेकिन इस बीच एक बड़ा प्रश्न खुद बिहारियो के आचरण को लेकर है. जो खबरे आरही है उसके मुताबिक गरीब और कमजोर लोगो के साथ बाहुबल बहुत अत्याचार कर रहे हैं. साथ ही चोर भी अपना हाथ साफ कर रहे हैं.

सरकारी अमले द्रवारा बाढ़ में फंसे गरीब लोगो को बाहार निकालने मे दोहरा पैमाना अपनाया जारा है. उन्हे मरने के लिए छोड़ दिया गया है. उनके नाव को छीन लिया गया है. साथ ही उन इलाको की तरफ जाने वाली नावो को भी रोक कर अमीर अपनी दादागिरी देखा रहे है. गरीब सहायता के लिए तरस रहे हैं. लेकिन हम उन्हे मरने के लिए छोड़ कर अपने को एक बहादुर कोम साबित करने मे लगे हुऐ है. वाह रे बिहारी मानवता.

सबसे दुखद पहलु यह है कि इस बुरे वक्त में लोग सुरक्षित स्थान की तरफ जा रहे लोगो के सामान की चोरी भी कर रहे हैं जोकि एक करुर बिहारी समाज की झलक पैश कर रहा है. इस विपत्ती के समय हमें अपने बुरे आचरणो को भी देखना चाहिए.

शाद आप को लेगो को लगे के किसी एक घटना के बाद पुरे समाज को सवालो के कटघरे मे डालना कहॉ का इन्साफ है तो मै आप को बता दु के इस से पहले भी हमने ऐसी ही हरकते बिहारी समाज में देखी हैं.

मैं अपने बचपन के समय को याद करता हुँ तो भी एक कुरुर बिहार की छवी ऊभरती है. मुझे याद पड़ता है कि मेरे गाँव मे आग लगी थी गाँव के बड़े आग पर काबु पाने की कोशिश कर रहे थे जबकि कुछ लोग अपने अपने घरों से सामान बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे. इस काम मे महिलाए भी उनकी सहायता कर रही थीं. लेकिन इस बीच सबसे दुखद घटना यह घटी के जिस सुरक्षित स्थान पर सामान लाकर रखा जारहा था वहाँ से सामान गायब हो रहे थे आप अन्दाजा लगा सकते है कि यह सामान अपने आप तो गायब नही हो रहे थे. जी यही हमारा समाज है.

Friday, August 29, 2008

बाढ़ की त्रासदी. यह कहानी पुरानी है


सा़वन के महीनें में बहुतों को खुली धूप में आकाश में बदरी के उठने, फूर्ती के साथ छा जाने और फिर छमाछम बूंदे गिरने का नज़ारा बड़ा दिलक्श लगता हो लेकिन देश में एक बड़ी आबादी के लिए यह महीना अभिशाप की तरह है.

जब सावन की बौछार बाढ़ का रूप धारण करती है तो विशेष कर उत्तर भारत की बड़ी आबादी को घर उजड़ने से लेकर विस्थापन की एक लम्बी त्रास्दी का सामना करना पड़ता है.

इस समय इसी त्रासदी से कोसी नदी के नए और पुराने धाराओं के आस पास बसे लोगो का सामना हो रहा है. बिहार के तीन ज़िले अररिया, सुपौल और सहरसा के 20 लाख से ज़्यादा लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं.

कोसी नदी के उग्र होने से गॉव के गॉव बह गऐ हैं. साप और बिच्छू घर बाहर फैले हुए हैं. जीवन सावन की ठिठोली में भी नरक हना हुआ है. सच है कि तातकालिक त्रास्दी का कारण कोसी नदी का धारा परिवर्तन है लेकिन इस तरह की त्रासदी से उत्तर भारत कि बङी आबादी को हर बरस रुबरु होना पड़ता है. पिछले वर्ष भी उन्हे इसी तरह की त्रासदी से जूझना पड़ता था और सेंकड़ो लोगो को जान गवानी पड़ी थी.

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या कारण हैं कि भारत में लोगे को प्रत्यक वर्ष ऐसी जानलेवा बाढ़ से जूझना पङता है. जबकि देश के एक बङे भाग में पानी की कमी के कारण सूखा पङना भी आम बात है.

जानकार बताते हैं कि गंदी राजनीति और राष्टीय नीति के अभाव के कारण परियोजनाओं के सवरुप तय करने और उसके क्रियानवयन में दिक्कते आती हैं और इस तरह जनता की परेशानी का निदान नही हो पाता है.

धीमी धीमी पुरवैया जब चलती हैं काले काले बादलों से आकाश घिरने लगता है. फिर बूंदे शैने शैने रिमझिम रिमझिम धारासार का रुप ले लेती हैं आप का हमारा दिल अमराइयो के झुरमुठ पर झुले बांधने को कहता है लेकिन उस पार त्रासदी की एक आपार गाथा है. और शायद यही सच्चाई भी है.