Thursday, January 29, 2009

हर ख़्वाहिश पर दम निकले!

अब्दुल वाहिद आजाद

"मेरी आँखों में भी बड़े-बड़े सपने हैं। कुछ कर गुज़रने की तमन्ना है. मैं भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बनना चाहता हूँ, लेकिन मेरी सबसे बड़ी ख़्वाहिश यह है कि हमारी झोपड़ियाँ हर हाल में क़ायम रहें."

ये कहना है भारत की राजधानी दिल्ली के बेगमपुर इलाके में स्थित एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले 18 वर्षीय राकेश कुमार का।

राकेश के पिता ने उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ से रोज़ीरोटी और आशियाने का सपना लेकर आज से कोई 30 बरस पहले दिल्ली का रुख़ किया था।

राकेश बताते हैं कि पिता का सपना आज भी अपनी मंज़िल को नहीं पा सका है और विरासत में धन-दौलत के बजाए पिता के सपने को साकार करने की मजबूरी और ज़रूरत मिले हैं।

वो कहते हैं, "अगर ये झोपड़ियाँ अभी टूट गईं तो हमारे सपने बिखर जाएंगे। एक बेहतर आशियाना पाने के साथ-साथ मुझे कंप्यूटर इंजीनियर भी बनना है."

रील और रियल में फ़र्क़

जब उनसे पूछा गया कि क्या वो भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बन सकने का सपना देखते हैं, तो उनका कहना था, "रील और रियल लाइफ़ में फ़र्क़ होता है। लगता नहीं है कि करोड़पति बन सकता हूँ क्योंकि हम जिस अभाव में रहते हैं वहाँ सपने देखे तो ज़रूर जाते हैं लेकिन अक्सर पूरा होने से पहले ही चकनाचूर हो जाते हैं."

स्लमडॉग मिलिनेयर एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती मुंबई के धरावी की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म है, जिसमें झुग्गी बस्ती के जमाल नामक एक युवक के करोड़पति बनने की कहानी है।

फ़िल्म इसी शुक्रवार को भारत में रिलीज़ हुई है। फ़िल्म की झोली में चार गोल्डन ग्लोब अवार्ड भी आ चुके हैं.

सपनों साकार होना

रील और रियल लाइफ़ के फ़र्क़ को जानने के लिए झुग्गी बस्ती की 15 वर्षीया सोनी गुप्ता से जब ये जानना चाहा कि उनके सपने क्या हैं और क्या उन्होंने फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर के बारे में सुना है तो उनका कहना था,"मैंने फ़िल्म के बारे में टीवी पर ख़बर सुनी है, लेकिन मेरे ख़्याल से असली ज़िंदगी में सपनों को साकार करने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है। गंदगी, ख़राब माहौल, शोर-शराबे और गाली-गलौज के बीच सपने नहीं बुने जा सकते."

हालाँकि सोनी का कहना था कि वो अभी 10वीं क्लास में पढ़ रही हैं और आगे चलकर कंप्यूटर की दुनिया में जाना चाहती हैं क्योंकि उनके अनुसार इस क्षेत्र में नौकरी आसानी से मिलती है।

प्रतिभा की कमी नहीं

स्लम बस्ती में बच्चों को पढ़ाने वाले 22 वर्षीय सरकरी टीचर मुमताज़ जोहर से जब बच्चों की प्रतिभा, सपने और उनके माता-पिता की ख़्वाहिश के बारे में पूछा तो उनका कहना था, "यहाँ के बच्चे-बच्चियों में न प्रतिभा की कमी है न शौक की, माता-पिता भी चाहते हैं कि उनकी औलाद पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने, लेकिन सुविधाओं का अभाव, घर की परेशानियाँ और छोटी उम्र में काम का बोझ, बच्चों की प्रतिभा और शौक पर छुरी चला देते हैं।"

दिल्ली के कई झुग्गी बस्तियों में अनेकों युवाओं से मिला, जिनमें कई अपने माहौल से ख़ासे नाराज़ दिखे।

तैमूर नगर के नौशाद का कहना था, "सपने बहुत हैं, लेकिन मैं पुलिसकर्मी बनना चाहता हूँ ताकि यहाँ से नशाख़ोरी, शराब पीने की आदत का ख़ात्मा कर सकूँ, एक को देखकर दूसरा नशे का आदी बनता ही जा रहा है और रोज़ इसकी तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही है, मुझे इस माहौल में घुटन होती है।"

शिक्षा की ज़रूरत

चौदह वर्षीय अमीरुन्न निसां एक मस्जिद के इमाम की बेटी हैं. उनका भी घर एक झुग्गी बस्ती में है. उन्होंने स्लमडॉग मिलिनेयर फ़िल्म के बारे में नहीं सुना है लेकिन वो भी ख़ूब पैसा कमाना चाहती हैं.
वो कहती है कि यदि बच्चों को अच्छे संस्कार दिए जाएं और शिक्षित कर दिया जाए तो झुग्गी बस्तियों से सभी बुराई जैसे नशाख़ोरी और ज़ोर-ज़ोर से गाने बजाना ख़त्म हो सकता है।

झुग्गी बस्तियों में काम करने वाली स्वंय सेवी संस्था आश्रय के प्रमुख संजय कुमार का कहना है कि सपने हर जगह हैं लेकिन झुग्गी बस्तियों में इन सपनों के मरने की दर अधिक है।

सपनों का मर जाना

फ़िल्में, ख़ासकर स्लमडॉग मिलिनेयर और मीडिया के झुग्गी बस्तियों के नवयुकों पर पड़ने वाले प्रभाव पर संजय कहना था, "इन बच्चों में बड़े सपने पहले से भी हैं, फ़िल्में उनके सपने को बल देती हैं और मुमकिन है स्लमडॉग मिलिनेयर भी उनके सपने को बढ़ावा दे।"

झुग्गी बस्तियों के नौजवानों से बात करने के बाद महसूस होता है कि आकर्षक, सुन्दर और गगनचुंबी इमारतों के बीच आबाद ये झुग्गियाँ दरअसल दूर दराज़ से आए लाखों लोगों के सपनों के क़िले हैं और इनके गिर्द बसी झुग्गियों में ऐसे सपनों को मंज़िल देने की कोशिश का सफ़र अभी भी जारी है।

क्रांतिकारी कवि पाश ने कहा था- सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों को मर जाना.
...ऐसे में सवाल उठता है कि अगर ये सपनों के क़िले ढ़ह गए तो कितना ख़तरनाक हो सकता है? क्योंकि इन झुग्गियों में कइयों को तो सपने भी या सपने ही विरासत में मिले हैं.

Wednesday, January 21, 2009

'नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ'

'नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ'
साभार बीबीसी हिंदी डॉककॉम
अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में कैपिटॉल हिल और व्हाइट हाउस के बीच स्थित द मॉल पर जमा लाखों लोगों की तालियों की गूंज के बीच अमरीका के 44वें राष्ट्रपति ने शपथ ली.
'आई बराक हुसैन ओबामा...' की आवाज़ आते ही इस ऐतिहासिक मौक़े के गवाह बनने पहुँचे लगभग 20 लाख लोगों में ख़ुशी की सिहरन-सी दौड़ गई, उनका महीनों का इंतज़ार पूरा हुआ, 20 जनवरी 2008 का दिन इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया, पहला अफ्रीकी-अमरीकी देश के शीर्ष पद पर पहुँच गया.
कड़ाके की ठंड में नीला सूट और लाल टाई पहने ओबामा के कोट पर अमरीका का छोटा सा झंडा चमक रहा था, उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने पीले रंग का सूट पहन रखा था.
ओबामा के अठारह मिनट के भाषण में कई बार तालियाँ बजीं और कैमरे कई ऐसे लोगों का क्लोज़ अप दिखाते रहे जिनकी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे.
ओबामा ने अपने भाषण की शुरूआत निवर्तमान राष्ट्रपति बुश को धन्यवाद देने के शिष्टाचार से की और उनकी सेवाओं के लिए उनका आभार प्रकट किया.
उन्होंने कहा, "अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीकी संविधान के चर्चित हिस्से 'परस्यूट ऑफ़ हैप्पीनेस' से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने कहा, "सभी लोग स्वतंत्र हैं, सभी समान हैं और सबको अपने हिस्से की ख़ुशियाँ तलाश करने के लिए अवसर मिलने चाहिए."
आर्थिक मंदी
दुनिया भर की आर्थिक मंदी किस क़दर अमरीकी राष्ट्रपति के दिमाग़ पर भी हावी है इसका पता चलने में देरी नहीं लगी, उन्होंने अपने भाषण के दूसरे ही मिनट में मंदी की समस्याओं पर बोलना शुरू कर दिया.
आठ साल के अंतराल पर आए डेमोक्रेट राष्ट्रपति ने कहा कि "पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."
ओबामा ने कहा, "चुनौतियाँ बहुत सारी हैं, बहुत गंभीर हैं, इससे न तो जल्दी निबटा जा सकता है, न ही आसानी से लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि हम कामयाब होंगे क्योंकि मुझे अमरीका की जनता पर पूरा भरोसा है, पूरे देश में सबके साझा हित की बात सब समझेंगे और सही दिशा में काम करेंगे."
उन्होंने अमरीकी नागरिकों से कहा कि वे "धूल झाड़कर नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ".
अमरीका के नए राष्ट्रपति ने अपनी जनता से वादा किया, "हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
आतंकवाद
ओबामा ने अपने भाषण में अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ का सिर्फ़ एक पंक्ति में ज़िक्र किया लेकिन उन्होंने कहा, "पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
आतंकवाद की चुनौती के बारे में ओबामा ने कहा, "हम अपनी जीवनशैली को नहीं बदलने वाले और जो हमारी लोकतांत्रिक जीवन शैली को चुनौती देते हैं उन्हें हम बताना चाहते हैं कि वे अमरीका की जनता की स्वतंत्रता, एकता और शांति की इच्छा को पराजित नहीं कर सकते."
अमरीका के बहुसांस्कृतिक स्वरूप पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा, "अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति ने दुनिया के मुस्लिम बहुल देशों के नेताओं को अपना साझीदार बताया और कहा कि वे उनके साथ मिलकर काम करेंगे.
उन्होंने कहा, "हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
अमरीकी राष्ट्रपति शपथ ग्रहण के बाद सांसदों के साथ दोपहर का भोजन करने कैपिटॉल हॉल रवाना होंगे और मंगलवार की रात से वे व्हाइट हाउस में रहना शुरू करेंगे.

Monday, January 12, 2009

बिहार: ख़ुशी की गोद में दर्द का दलदल

अब्दुल वाहिद आजा़द

पिछले कुछ सालों में 'बिमारू' राज्य कहे जाने वाले बिहार के अंदर कई बदलाव आए और इसकी तारिफ़ राज्य के अंदर और बाहर ख़ूब हो रही है.

नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य को विकास का जो पहिया मिला वो लगातार नाच रहा है. नीतीश के दौर में विकास का काम इसलिए भी मुखर होकर दिख रहा क्योंकि इससे पहले लालू प्रसाद पति-पत्नी के 15 वर्षों के शासनकाल में राज्य विकास के बजाए विनाश की ओर बढ़ा.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि नीतीश के दौर में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है और मौजूदा सरकार पर लालू दौर का बुरा साया नहीं है. लोगों के अंतर्मन में पहुँच कर लगता है कि अभी इस अंधेर नगरी में आम जनता का दुख दर्द कम नहीं हुआ है. फूल खिले तो हैं पर अभी भी कांटो की चुभन बहुत गहरी है.

पिछले महीने दिसंबर में ईद के अवसर पर अपने गाँव में था, रिश्तेदारों से मिलने-जुलने के बहाने कई जगहों पर जाने का मौक़ा मिला, लेकिन निम्न और मध्य वर्ग के बीच सभी जगहों पर चर्चा का विषय लगभग एक ही दिखा, और वो था राज्य में शिक्षकों की नई बहाली का मामला।

शिक्षकों की बहाली

लोग ख़ुश थे कि नीतीश ने अपने पिछले तीन साल के कार्यकाल में कुल मिलाकर तीन लाख लोगों को नौकरी दी है और अब फिर लगभग एक लाख शिक्षकों की बहाली करने जा रही है. प्रायमरी शिक्षकों की बहाली पंचायत स्तर पर तथा हाई स्कूल शिक्षकों की बहाली ज़िला स्तर पर करने का प्रावधान है.

हाई स्कूल शिक्षकों को बहाल करने का अधिकार ज़िला मुख्यालय के पास है जबकि प्रायमरी शिक्षकों को बहाल करने का अधिकार पंचायत के मुखिया को दिया है जोकि लोगों की परेशानी का सबब है क्योंकि ये धांधली का गढ़ बना हुआ है और यहाँ लूट-खसौट जारी है.

बहाली के लिए पहले ही एक सामान्य सूची निकाली जा चुकी है और एक मेधा सूची निकाली ही जाने वाली है जोकि उम्मीदवारों के विभिन्न परीक्षाओं में प्राप्त नंबरों के आधार पर तैयार की जा रही है.

एक सीट के लिए 10 उम्मीदवारों के नाम निकाले जाएंगे, स्थानीय मामला होने की वजह से लोगों को मालूम है कि मेधा सूची में उनका क्या स्थान रहने वाला है लेकिन वे लोग घबराए हुए हैं कि कहीं मुखिया कोई गड़बड़ नहीं कर दे, और मुखिया इस घबराहट को देखते हुए नौकरी पक्की करने के लिए एक लाख से लेकर तीन लाख माँग रहे हैं।

ग़ैरहाज़िर दिखाने का हथियार

क्योंकि एक सीट के लिए जो दस लोग बुलाए जाते हैं उनमें किसी को भी ग़ैरहाज़िर दिखाने का हथियार मुखिया के पास है.

पिछली बार की बहाली में कम नंबर वोलों को नौकरी देने के अधिकतर मामले ऐसे ही तय किए गए थे और पिछली बहाली में ज़बरदस्त धांधली हुई थी. सरकार खुद सिर्फ़ जाली सर्टिफ़िकेट के चार हज़ार मामलों की जाँच कर रही है. ऐसे में इस बार मुखिया का एलान है कि अगर मेधा सूची में नंबर आगे होने के बाद भी बिना झमेला के नौकरी चाहते हैं तो बेहतर है कि लाख रुपये पहले ही दे दिए जाएं.


ताज्जुब की बात ये है कि लोगों में मेधा सूची में अपना नाम पाकर भी ये रक़म चुपके से मुखिया और इससे जुड़े अधिकारी को देकर भी नौकरी पाने की आतुरता है लकिन उच्च अधिकारी को शिकायत करना नहीं चाहते क्योंकि वो आश्वसत हैं कि नीतीश के शासन पर से लालू का रंग फिका नहीं हुआ है।

दलाली का पैमाना

दिलचस्प बात ये है कि मैं अपने गाँव में कुछ लोगों से बात कर रहा था तो एक श्रीमान ने व्यंग करते हुए बिहार की असल हक़ीकत पर रौशनी डालते हुए बताया कि जब मुखिया सार्वजनिक स्थान पर एक सोलर लाइट लगवाता है तो उसे 15 से 20 हज़ार रुपये का फ़ायदा होता है जबकि सोलर लाइट का कुल बजट 45 हजा़र रुपये है. ऐसे में अगर एक टीचर की बहाली में एक-दो लाख रुपये माँग ही रहा है तो क्या ग़लत है?

राज्य में दलाली का कारोबार काफ़ी बड़ा है और इसकी बढ़ोतरी की दर चौंकाने वाला है. पिछली बार की बहाली में मेधा सूची में नाम आने वालों को ग़ैरहाज़िर कर मुखिया ने दूसरे को नौकरी दी तो 30 हज़ार से लेकर एक लाख रुपये लिए थे लेकिन इस बार यहाँ आर्थिक मंदी का नहीं बल्कि महंगाई की मार है और माँग तीन गुना बढ़ गई है.

इन एक लाख शिक्षकों की बहाली में 1.5 लाख रुपये घूस दिए जाते हैं तो ये रक़म 150 करोड़ पहुँच जाती है. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पिछले तीन सालों में सिर्फ़ राज्य की सरकारी नौकरियों को हासिल करने के लिए लोगों ने कितने करोड़ घूस में दिए हैं.

ये बात सच है कि नीतीश के दौर में पिछले तीन सालों में कई क्रांतिकारी क़दम उठाए गए हैं. भारतीय मानव इतिहास के सबसे बड़े जल प्रलय का जिस तरह से मुक़ाबला किया वो किसी से छुपा हुआ नहीं है.

बाढ़ से प्रभावित लोगों को सरकार ने बेहतर सहायता पहुचाँई। एक हज़ार किलोमीटर आधुनिक रोड के लिए 5000 करोड़ रुपये खर्च किए. बिजली के लिए 7000 करोड़ रुपये का निवेश किया. नए डाक्टरों की बहाली की और उनकी ड्यूटी को सुनिश्चित करने के लिए कई सुविधाएं दी है जिनमें मोबाइल फ़ोन भी शामिल है.

नेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़

कहने को नीतीश यह भी दावा कर रहे हैं कि उनके शासनकाल में अपराध का गिराफ़ निचे खिसका है. दलाली और भ्रटाचार में कमी आई है. लेकिन असल सवाल ये है कि पर्दे के पीछे जो कुछ हो रहा है उसके बारे में सराकर को कुछ पता भी या नहीं?

और अगर सरकार को पता है तो वो इस सिलसिले में क्या कर रही है? क्या दुनिया को गंणतंत्र की पाठ देने वाले इस राज्य को सुधरने या सुधारने में अभी भी वक़्त लगेंगे? वो भी एक ऐसे नेतृत्व में जब राजनीतिक गलियारों में नीतीश कुमार की छवि एक इमानदार नेता के रुप में होती है, तो सवाल उठता है कि क्या नीतीश अभी भी नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ को तोड़ पाने में कामयाब नहीं हो सके हैं और नौकरशाही में जो छिद्र पहले से मौजूद हैं वो अभी भी बंद नहीं हुए हैं.

ऐसे में नीतीश की इमानदार छवि के बावजूद लगता है कि उनके नेतृत्व में कहीं न कहीं बड़ी रुकावट है जिससे वो पार पाने में कमायाब नहीं हो पा रहे हैं. शायद उस दिशा में नीतीश को सोचने और करने की आवश्यकता है.तभी जाकर जनता ख़ुशी के गोद में पल रहे दर्द के दलदल से निकल सकती है.