Thursday, January 29, 2009

हर ख़्वाहिश पर दम निकले!

अब्दुल वाहिद आजाद

"मेरी आँखों में भी बड़े-बड़े सपने हैं। कुछ कर गुज़रने की तमन्ना है. मैं भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बनना चाहता हूँ, लेकिन मेरी सबसे बड़ी ख़्वाहिश यह है कि हमारी झोपड़ियाँ हर हाल में क़ायम रहें."

ये कहना है भारत की राजधानी दिल्ली के बेगमपुर इलाके में स्थित एक झुग्गी बस्ती में रहने वाले 18 वर्षीय राकेश कुमार का।

राकेश के पिता ने उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ से रोज़ीरोटी और आशियाने का सपना लेकर आज से कोई 30 बरस पहले दिल्ली का रुख़ किया था।

राकेश बताते हैं कि पिता का सपना आज भी अपनी मंज़िल को नहीं पा सका है और विरासत में धन-दौलत के बजाए पिता के सपने को साकार करने की मजबूरी और ज़रूरत मिले हैं।

वो कहते हैं, "अगर ये झोपड़ियाँ अभी टूट गईं तो हमारे सपने बिखर जाएंगे। एक बेहतर आशियाना पाने के साथ-साथ मुझे कंप्यूटर इंजीनियर भी बनना है."

रील और रियल में फ़र्क़

जब उनसे पूछा गया कि क्या वो भी स्लमडॉग मिलिनेयर के जमाल की तरह करोड़पति बन सकने का सपना देखते हैं, तो उनका कहना था, "रील और रियल लाइफ़ में फ़र्क़ होता है। लगता नहीं है कि करोड़पति बन सकता हूँ क्योंकि हम जिस अभाव में रहते हैं वहाँ सपने देखे तो ज़रूर जाते हैं लेकिन अक्सर पूरा होने से पहले ही चकनाचूर हो जाते हैं."

स्लमडॉग मिलिनेयर एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी बस्ती मुंबई के धरावी की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म है, जिसमें झुग्गी बस्ती के जमाल नामक एक युवक के करोड़पति बनने की कहानी है।

फ़िल्म इसी शुक्रवार को भारत में रिलीज़ हुई है। फ़िल्म की झोली में चार गोल्डन ग्लोब अवार्ड भी आ चुके हैं.

सपनों साकार होना

रील और रियल लाइफ़ के फ़र्क़ को जानने के लिए झुग्गी बस्ती की 15 वर्षीया सोनी गुप्ता से जब ये जानना चाहा कि उनके सपने क्या हैं और क्या उन्होंने फ़िल्म स्लमडॉग मिलिनेयर के बारे में सुना है तो उनका कहना था,"मैंने फ़िल्म के बारे में टीवी पर ख़बर सुनी है, लेकिन मेरे ख़्याल से असली ज़िंदगी में सपनों को साकार करने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है। गंदगी, ख़राब माहौल, शोर-शराबे और गाली-गलौज के बीच सपने नहीं बुने जा सकते."

हालाँकि सोनी का कहना था कि वो अभी 10वीं क्लास में पढ़ रही हैं और आगे चलकर कंप्यूटर की दुनिया में जाना चाहती हैं क्योंकि उनके अनुसार इस क्षेत्र में नौकरी आसानी से मिलती है।

प्रतिभा की कमी नहीं

स्लम बस्ती में बच्चों को पढ़ाने वाले 22 वर्षीय सरकरी टीचर मुमताज़ जोहर से जब बच्चों की प्रतिभा, सपने और उनके माता-पिता की ख़्वाहिश के बारे में पूछा तो उनका कहना था, "यहाँ के बच्चे-बच्चियों में न प्रतिभा की कमी है न शौक की, माता-पिता भी चाहते हैं कि उनकी औलाद पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने, लेकिन सुविधाओं का अभाव, घर की परेशानियाँ और छोटी उम्र में काम का बोझ, बच्चों की प्रतिभा और शौक पर छुरी चला देते हैं।"

दिल्ली के कई झुग्गी बस्तियों में अनेकों युवाओं से मिला, जिनमें कई अपने माहौल से ख़ासे नाराज़ दिखे।

तैमूर नगर के नौशाद का कहना था, "सपने बहुत हैं, लेकिन मैं पुलिसकर्मी बनना चाहता हूँ ताकि यहाँ से नशाख़ोरी, शराब पीने की आदत का ख़ात्मा कर सकूँ, एक को देखकर दूसरा नशे का आदी बनता ही जा रहा है और रोज़ इसकी तादाद में बढ़ोत्तरी हो रही है, मुझे इस माहौल में घुटन होती है।"

शिक्षा की ज़रूरत

चौदह वर्षीय अमीरुन्न निसां एक मस्जिद के इमाम की बेटी हैं. उनका भी घर एक झुग्गी बस्ती में है. उन्होंने स्लमडॉग मिलिनेयर फ़िल्म के बारे में नहीं सुना है लेकिन वो भी ख़ूब पैसा कमाना चाहती हैं.
वो कहती है कि यदि बच्चों को अच्छे संस्कार दिए जाएं और शिक्षित कर दिया जाए तो झुग्गी बस्तियों से सभी बुराई जैसे नशाख़ोरी और ज़ोर-ज़ोर से गाने बजाना ख़त्म हो सकता है।

झुग्गी बस्तियों में काम करने वाली स्वंय सेवी संस्था आश्रय के प्रमुख संजय कुमार का कहना है कि सपने हर जगह हैं लेकिन झुग्गी बस्तियों में इन सपनों के मरने की दर अधिक है।

सपनों का मर जाना

फ़िल्में, ख़ासकर स्लमडॉग मिलिनेयर और मीडिया के झुग्गी बस्तियों के नवयुकों पर पड़ने वाले प्रभाव पर संजय कहना था, "इन बच्चों में बड़े सपने पहले से भी हैं, फ़िल्में उनके सपने को बल देती हैं और मुमकिन है स्लमडॉग मिलिनेयर भी उनके सपने को बढ़ावा दे।"

झुग्गी बस्तियों के नौजवानों से बात करने के बाद महसूस होता है कि आकर्षक, सुन्दर और गगनचुंबी इमारतों के बीच आबाद ये झुग्गियाँ दरअसल दूर दराज़ से आए लाखों लोगों के सपनों के क़िले हैं और इनके गिर्द बसी झुग्गियों में ऐसे सपनों को मंज़िल देने की कोशिश का सफ़र अभी भी जारी है।

क्रांतिकारी कवि पाश ने कहा था- सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों को मर जाना.
...ऐसे में सवाल उठता है कि अगर ये सपनों के क़िले ढ़ह गए तो कितना ख़तरनाक हो सकता है? क्योंकि इन झुग्गियों में कइयों को तो सपने भी या सपने ही विरासत में मिले हैं.

Wednesday, January 21, 2009

'नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ'

'नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ'
साभार बीबीसी हिंदी डॉककॉम
अमरीका की राजधानी वाशिंगटन डीसी में कैपिटॉल हिल और व्हाइट हाउस के बीच स्थित द मॉल पर जमा लाखों लोगों की तालियों की गूंज के बीच अमरीका के 44वें राष्ट्रपति ने शपथ ली.
'आई बराक हुसैन ओबामा...' की आवाज़ आते ही इस ऐतिहासिक मौक़े के गवाह बनने पहुँचे लगभग 20 लाख लोगों में ख़ुशी की सिहरन-सी दौड़ गई, उनका महीनों का इंतज़ार पूरा हुआ, 20 जनवरी 2008 का दिन इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया, पहला अफ्रीकी-अमरीकी देश के शीर्ष पद पर पहुँच गया.
कड़ाके की ठंड में नीला सूट और लाल टाई पहने ओबामा के कोट पर अमरीका का छोटा सा झंडा चमक रहा था, उनकी पत्नी मिशेल ओबामा ने पीले रंग का सूट पहन रखा था.
ओबामा के अठारह मिनट के भाषण में कई बार तालियाँ बजीं और कैमरे कई ऐसे लोगों का क्लोज़ अप दिखाते रहे जिनकी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे.
ओबामा ने अपने भाषण की शुरूआत निवर्तमान राष्ट्रपति बुश को धन्यवाद देने के शिष्टाचार से की और उनकी सेवाओं के लिए उनका आभार प्रकट किया.
उन्होंने कहा, "अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."
अमरीकी संविधान के चर्चित हिस्से 'परस्यूट ऑफ़ हैप्पीनेस' से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने कहा, "सभी लोग स्वतंत्र हैं, सभी समान हैं और सबको अपने हिस्से की ख़ुशियाँ तलाश करने के लिए अवसर मिलने चाहिए."
आर्थिक मंदी
दुनिया भर की आर्थिक मंदी किस क़दर अमरीकी राष्ट्रपति के दिमाग़ पर भी हावी है इसका पता चलने में देरी नहीं लगी, उन्होंने अपने भाषण के दूसरे ही मिनट में मंदी की समस्याओं पर बोलना शुरू कर दिया.
आठ साल के अंतराल पर आए डेमोक्रेट राष्ट्रपति ने कहा कि "पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."
ओबामा ने कहा, "चुनौतियाँ बहुत सारी हैं, बहुत गंभीर हैं, इससे न तो जल्दी निबटा जा सकता है, न ही आसानी से लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि हम कामयाब होंगे क्योंकि मुझे अमरीका की जनता पर पूरा भरोसा है, पूरे देश में सबके साझा हित की बात सब समझेंगे और सही दिशा में काम करेंगे."
उन्होंने अमरीकी नागरिकों से कहा कि वे "धूल झाड़कर नया अमरीका बनाने में जुट जाएँ".
अमरीका के नए राष्ट्रपति ने अपनी जनता से वादा किया, "हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."
आतंकवाद
ओबामा ने अपने भाषण में अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ का सिर्फ़ एक पंक्ति में ज़िक्र किया लेकिन उन्होंने कहा, "पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."
आतंकवाद की चुनौती के बारे में ओबामा ने कहा, "हम अपनी जीवनशैली को नहीं बदलने वाले और जो हमारी लोकतांत्रिक जीवन शैली को चुनौती देते हैं उन्हें हम बताना चाहते हैं कि वे अमरीका की जनता की स्वतंत्रता, एकता और शांति की इच्छा को पराजित नहीं कर सकते."
अमरीका के बहुसांस्कृतिक स्वरूप पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा, "अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे."
अमरीका के 44वें राष्ट्रपति ने दुनिया के मुस्लिम बहुल देशों के नेताओं को अपना साझीदार बताया और कहा कि वे उनके साथ मिलकर काम करेंगे.
उन्होंने कहा, "हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके."
अमरीकी राष्ट्रपति शपथ ग्रहण के बाद सांसदों के साथ दोपहर का भोजन करने कैपिटॉल हॉल रवाना होंगे और मंगलवार की रात से वे व्हाइट हाउस में रहना शुरू करेंगे.

Monday, January 12, 2009

बिहार: ख़ुशी की गोद में दर्द का दलदल

अब्दुल वाहिद आजा़द

पिछले कुछ सालों में 'बिमारू' राज्य कहे जाने वाले बिहार के अंदर कई बदलाव आए और इसकी तारिफ़ राज्य के अंदर और बाहर ख़ूब हो रही है.

नीतीश कुमार के नेतृत्व में राज्य को विकास का जो पहिया मिला वो लगातार नाच रहा है. नीतीश के दौर में विकास का काम इसलिए भी मुखर होकर दिख रहा क्योंकि इससे पहले लालू प्रसाद पति-पत्नी के 15 वर्षों के शासनकाल में राज्य विकास के बजाए विनाश की ओर बढ़ा.

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि नीतीश के दौर में सब कुछ अच्छा ही चल रहा है और मौजूदा सरकार पर लालू दौर का बुरा साया नहीं है. लोगों के अंतर्मन में पहुँच कर लगता है कि अभी इस अंधेर नगरी में आम जनता का दुख दर्द कम नहीं हुआ है. फूल खिले तो हैं पर अभी भी कांटो की चुभन बहुत गहरी है.

पिछले महीने दिसंबर में ईद के अवसर पर अपने गाँव में था, रिश्तेदारों से मिलने-जुलने के बहाने कई जगहों पर जाने का मौक़ा मिला, लेकिन निम्न और मध्य वर्ग के बीच सभी जगहों पर चर्चा का विषय लगभग एक ही दिखा, और वो था राज्य में शिक्षकों की नई बहाली का मामला।

शिक्षकों की बहाली

लोग ख़ुश थे कि नीतीश ने अपने पिछले तीन साल के कार्यकाल में कुल मिलाकर तीन लाख लोगों को नौकरी दी है और अब फिर लगभग एक लाख शिक्षकों की बहाली करने जा रही है. प्रायमरी शिक्षकों की बहाली पंचायत स्तर पर तथा हाई स्कूल शिक्षकों की बहाली ज़िला स्तर पर करने का प्रावधान है.

हाई स्कूल शिक्षकों को बहाल करने का अधिकार ज़िला मुख्यालय के पास है जबकि प्रायमरी शिक्षकों को बहाल करने का अधिकार पंचायत के मुखिया को दिया है जोकि लोगों की परेशानी का सबब है क्योंकि ये धांधली का गढ़ बना हुआ है और यहाँ लूट-खसौट जारी है.

बहाली के लिए पहले ही एक सामान्य सूची निकाली जा चुकी है और एक मेधा सूची निकाली ही जाने वाली है जोकि उम्मीदवारों के विभिन्न परीक्षाओं में प्राप्त नंबरों के आधार पर तैयार की जा रही है.

एक सीट के लिए 10 उम्मीदवारों के नाम निकाले जाएंगे, स्थानीय मामला होने की वजह से लोगों को मालूम है कि मेधा सूची में उनका क्या स्थान रहने वाला है लेकिन वे लोग घबराए हुए हैं कि कहीं मुखिया कोई गड़बड़ नहीं कर दे, और मुखिया इस घबराहट को देखते हुए नौकरी पक्की करने के लिए एक लाख से लेकर तीन लाख माँग रहे हैं।

ग़ैरहाज़िर दिखाने का हथियार

क्योंकि एक सीट के लिए जो दस लोग बुलाए जाते हैं उनमें किसी को भी ग़ैरहाज़िर दिखाने का हथियार मुखिया के पास है.

पिछली बार की बहाली में कम नंबर वोलों को नौकरी देने के अधिकतर मामले ऐसे ही तय किए गए थे और पिछली बहाली में ज़बरदस्त धांधली हुई थी. सरकार खुद सिर्फ़ जाली सर्टिफ़िकेट के चार हज़ार मामलों की जाँच कर रही है. ऐसे में इस बार मुखिया का एलान है कि अगर मेधा सूची में नंबर आगे होने के बाद भी बिना झमेला के नौकरी चाहते हैं तो बेहतर है कि लाख रुपये पहले ही दे दिए जाएं.


ताज्जुब की बात ये है कि लोगों में मेधा सूची में अपना नाम पाकर भी ये रक़म चुपके से मुखिया और इससे जुड़े अधिकारी को देकर भी नौकरी पाने की आतुरता है लकिन उच्च अधिकारी को शिकायत करना नहीं चाहते क्योंकि वो आश्वसत हैं कि नीतीश के शासन पर से लालू का रंग फिका नहीं हुआ है।

दलाली का पैमाना

दिलचस्प बात ये है कि मैं अपने गाँव में कुछ लोगों से बात कर रहा था तो एक श्रीमान ने व्यंग करते हुए बिहार की असल हक़ीकत पर रौशनी डालते हुए बताया कि जब मुखिया सार्वजनिक स्थान पर एक सोलर लाइट लगवाता है तो उसे 15 से 20 हज़ार रुपये का फ़ायदा होता है जबकि सोलर लाइट का कुल बजट 45 हजा़र रुपये है. ऐसे में अगर एक टीचर की बहाली में एक-दो लाख रुपये माँग ही रहा है तो क्या ग़लत है?

राज्य में दलाली का कारोबार काफ़ी बड़ा है और इसकी बढ़ोतरी की दर चौंकाने वाला है. पिछली बार की बहाली में मेधा सूची में नाम आने वालों को ग़ैरहाज़िर कर मुखिया ने दूसरे को नौकरी दी तो 30 हज़ार से लेकर एक लाख रुपये लिए थे लेकिन इस बार यहाँ आर्थिक मंदी का नहीं बल्कि महंगाई की मार है और माँग तीन गुना बढ़ गई है.

इन एक लाख शिक्षकों की बहाली में 1.5 लाख रुपये घूस दिए जाते हैं तो ये रक़म 150 करोड़ पहुँच जाती है. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पिछले तीन सालों में सिर्फ़ राज्य की सरकारी नौकरियों को हासिल करने के लिए लोगों ने कितने करोड़ घूस में दिए हैं.

ये बात सच है कि नीतीश के दौर में पिछले तीन सालों में कई क्रांतिकारी क़दम उठाए गए हैं. भारतीय मानव इतिहास के सबसे बड़े जल प्रलय का जिस तरह से मुक़ाबला किया वो किसी से छुपा हुआ नहीं है.

बाढ़ से प्रभावित लोगों को सरकार ने बेहतर सहायता पहुचाँई। एक हज़ार किलोमीटर आधुनिक रोड के लिए 5000 करोड़ रुपये खर्च किए. बिजली के लिए 7000 करोड़ रुपये का निवेश किया. नए डाक्टरों की बहाली की और उनकी ड्यूटी को सुनिश्चित करने के लिए कई सुविधाएं दी है जिनमें मोबाइल फ़ोन भी शामिल है.

नेताओं और नौकरशाहों का गठजोड़

कहने को नीतीश यह भी दावा कर रहे हैं कि उनके शासनकाल में अपराध का गिराफ़ निचे खिसका है. दलाली और भ्रटाचार में कमी आई है. लेकिन असल सवाल ये है कि पर्दे के पीछे जो कुछ हो रहा है उसके बारे में सराकर को कुछ पता भी या नहीं?

और अगर सरकार को पता है तो वो इस सिलसिले में क्या कर रही है? क्या दुनिया को गंणतंत्र की पाठ देने वाले इस राज्य को सुधरने या सुधारने में अभी भी वक़्त लगेंगे? वो भी एक ऐसे नेतृत्व में जब राजनीतिक गलियारों में नीतीश कुमार की छवि एक इमानदार नेता के रुप में होती है, तो सवाल उठता है कि क्या नीतीश अभी भी नेताओं और नौकरशाहों के गठजोड़ को तोड़ पाने में कामयाब नहीं हो सके हैं और नौकरशाही में जो छिद्र पहले से मौजूद हैं वो अभी भी बंद नहीं हुए हैं.

ऐसे में नीतीश की इमानदार छवि के बावजूद लगता है कि उनके नेतृत्व में कहीं न कहीं बड़ी रुकावट है जिससे वो पार पाने में कमायाब नहीं हो पा रहे हैं. शायद उस दिशा में नीतीश को सोचने और करने की आवश्यकता है.तभी जाकर जनता ख़ुशी के गोद में पल रहे दर्द के दलदल से निकल सकती है.

Wednesday, October 1, 2008

भारत में सेक्स को बहुत अहमियत नहीं

बुधवार, 01 अक्तूबर, 2008 को 13:29 GMT तक के समाचार
अब्दुल वाहिद आजादा बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए, दिल्ली से
बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के सौजन से
एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों में कराए गए एक सर्वेक्षण में कहा गया कि भारतीयों के जीवन में अब भी सेक्स का कोई अहम स्थान नहीं है.
पुरुषों की 17 प्राथमिकताओं में सेक्स का स्थान सातवाँ है जबकि महिलाओं की 14 प्राथमिकताओं में यह लगभग सबसे निचले स्तर पर है.
भारत में महिलाओं और पुरूषों की प्राथमिकताओं में परिवार सबसे ऊपर है.
भारत में ये सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और पुणे में किया गया. तमाम प्रश्न अंग्रेजी में किए गए थे जो इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि इस सर्वेक्षण में शहरी और पढ़े-लिखे भारतीयों को शामिल किया था.
सर्वेक्षण से पता चला है इस महादेश के 13 देशों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा पुरुष और 60 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएँ अपने यौन जीवन से संतुष्ट नहीं हैं.
एक दवा कंपनी की ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट एशिया-पैसिफ़िक सेक्सुअल हेल्थ ऑवर ऑल वेलनेस यानी ‘एपीशो’ नाम का ये सर्वेक्षण बुधवार को दिल्ली में को जारी की गई.
सर्वेक्षण में भारत सहित आस्ट्रेलिया, चीन, हॉंगकॉंग, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, फ़िलीपींस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताईवान, थाइलैंड और न्यूज़ीलैंड जैसे देश शामिल थे.
भारत का हाल
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 72 प्रतिशत पुरुष और महिलाएँ अपने यौन जीवन से संतुष्ट हैं.
हालाँकि सर्वेक्षण के अनुसार भारत के शहरों में रहने वाले पचास प्रतिशत लोगों ने पर्याप्त यौन उत्तेजना न होने की शिकायत की और माना कि यह उनके सेक्स जीवन पर नाकारात्मक असर डालती है.
रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तेजना का स्तर और संभोग की संतुष्टि एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और जिन लोगों में उत्तेजना कम होती है उन लोगों में संभोग की इच्छा भी कम होती है.
सर्वेक्षण के जारी करने के बाद संवाददाताओं के सवालो का जवाब देते हुए ऐंडरोलोजिस्ट डाक्टर रुपिन शाह का कहना था," भारतीय संदर्भ में सर्वे ये बताता है कि जो व्यक्ति सेक्स लाइफ़ से पूरी तरह संतुष्ट हैं वे लोग अपने पूरे जीवन से भी कम असंतुष्ट हैं."
रिपोर्ट जारी करते हुए ऑस्ट्रेलिया की रोज़ी किंग का कहना था कि इस सर्वेक्षण का मक़सद सेक्सुअल हेल्थ के साथ-साथ सभी प्रकार के स्वास्थ्य को बेहतर करना है.
उनका कहना था, "ये सर्वेक्षण उन लोगों प्रोत्साहित करेगा जो झिझक रखते हैं. साथ ही, उत्तेजना की कमियों को दूर करने के बारे में भी मदद चाहने के लिए तैयार करना है."
ये सर्वेक्षण मई से जुलाई 2008 के बीच किया गया. सर्वेक्षण में लगभग चार हज़ार (दो हज़ार पुरुषों और दो हज़ार महिलाओं) लोगों को शामिल किया गया था.
सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों की आयु 24-74 के बीच थी.

Monday, September 29, 2008

जमिअत उलेमा-ए-हिन्द की सियासी सौदेबाज़ी

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद एक बात जो खुलकर के सामने आई कि जो लोग किसी ज़ुल्म और अत्याचार के बाद ख़ामोश तमाशाई बने रहते थे अब उन लोगों ने भी आवाज़ उठानी शुरू कर दी हैं.

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद सैंकड़ो लोगों और कई मुस्लिम संगठनों के चीफ़ से बाते करने का मौक़ा मिला.मेरी बातचीत में एक बात खुल कर सामने आई वो ये कि अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है.

लेकिन काफ़ी अचरज उस वक्त हुआ जब इस सिलसिले में मेरी बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी मुस्लिम संगठन होने का दावा करने जमिअत उलेमा-ए-हिन्द के कार्यकारी महासचिव मौलाना अब्दुल हमीद नुमानी से हुई.

उनके कहने का लुबे लुबाब ये था कि पुलिस के अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़्यादा हो होहल्ला करने की आवाश्यता नहीं है. उनका तर्क था कि हमने राजनैतिक डील के बाद गुजरात में उन सैंकड़ो लोगों को रिहाई दिलवाई है जो गोधरा कांड में अभियुक्त थे.

दिलचसप बात ये है कि जब उनसे पुछा गया कि मुठभेड़ जैसे मामलो पर क़ानुनी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है तो उनका कहना था कि ऐसी चीज़ों को ख़ामोशी के साथ लड़ने की आवशयकता है. उन्होने कहा कि जो लोग ज़्यादा चिल्ला रहे हैं दरअसल काम कुछ नहीं कर रहे हैं.

जिनको थोड़ी सेयासी समझ है और जो लोग जमियत के इतिहान को थोड़ा बहुत जानते हैं उन्हे मौलेना नुमानी के बातों से अंदाज़ा लग गया होगा के असल में मनुमानी साहब कहना क्या चाहते हैं.

याद दिला दू के जब 2004 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे तो तब भी मई 2003 में जमिअत नें एक अधिवेशन बुलाया था और एक मुस्लिम सेयासी जमाअत बनाने की बात कही गई थी. जानकारों की राय में दरअसर वो अधिवेशन एक सेयासी सौदे बाज़ी थी.

2009 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो अप्रैल 2008 में देवन्द में भी आतंकवाद विरोधी कंवेनशन हुआ. मीडिया ने तारिफ़ की लेकिन पसे परदा उसका भी मक़सद सेयासी था जिसपर कोई सवाल नहीं उठाया ये अलग बात है.

आज की बात का जो सार था वो ये कि सेयासी सौदेबाज़ी ही मामले का हल है. मुझे ऐसा लगता है कि जामिया मुठभेड़ भी जमिअत के लिए एक अचछा मौक़ा है और अब वो इस मामले को सेयासी सौदेबाज़ी में बदलेंगे. और मेरी राय में कांग्रेस से अच्छी डील हो सकती है. ऐसे ही क़ौम की रहनुमीइ करते रहें.

जमिअत उलेमा-ए-हिन्द का सियासी सौदेबाज़ी

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद एक बात जो खुलकर के सामने आई कि जो लोग किसी ज़ुल्म और अत्याचार के बाद ख़ामोश तमाशाई बने रहते थे अब उन लोगों ने भी आवाज़ उठानी शुरू कर दी हैं.

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद सैंकड़ो लोगों और कई मुस्लिम संगठनों के चीफ़ से बाते करने का मौक़ा मिला.मेरी बातचीत में एक बात खुल कर सामने आई वो ये कि अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है.

लेकिन काफ़ी अचरज उस वक्त हुआ जब इस सिलसिले में मेरी बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी मुस्लिम संगठन होने का दावा करने जमिअत उलेमा-ए-हिन्द के कार्यकारी महासचिव मौलाना अब्दुल हमीद नुमानी से हुई.

उनके कहने का लुबे लुबाब ये था कि पुलिस के अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़्यादा हो होहल्ला करने की आवाश्यता नहीं है. उनका तर्क था कि हमने राजनैतिक डील के बाद गुजरात में उन सैंकड़ो लोगों को रिहाई दिलवाई है जो गोधरा कांड में अभियुक्त थे.

दिलचसप बात ये है कि जब उनसे पुछा गया कि मुठभेड़ जैसे मामलो पर क़ानुनी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है तो उनका कहना था कि ऐसी चीज़ों को ख़ामोशी के साथ लड़ने की आवशयकता है. उन्होने कहा कि जो लोग ज़्यादा चिल्ला रहे हैं दरअसल काम कुछ नहीं कर रहे हैं.

जिनको थोड़ी सेयासी समझ है और जो लोग जमियत के इतिहान को थोड़ा बहुत जानते हैं उन्हे मौलेना नुमानी के बातों से अंदाज़ा लग गया होगा के असल में मनुमानी साहब कहना क्या चाहते हैं.

याद दिला दू के जब 2004 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे तो तब भी मई 2003 में जमिअत नें एक अधिवेशन बुलाया था और एक मुस्लिम सेयासी जमाअत बनाने की बात कही गई थी. जानकारों की राय में दरअसर वो अधिवेशन एक सेयासी सौदे बाज़ी थी.

2009 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो अप्रैल 2008 में देवन्द में भी आतंकवाद विरोधी कंवेनशन हुआ. मीडिया ने तारिफ़ की लेकिन पसे परदा उसका भी मक़सद सेयासी था जिसपर कोई सवाल नहीं उठाया ये अलग बात है.

आज की बात का जो सार था वो ये कि सेयासी सौदेबाज़ी ही मामले का हल है. मुझे ऐसा लगता है कि जामिया मुठभेड़ भी जमिअत के लिए एक अचछा मौक़ा है और अब वो इस मामले को सेयासी सौदेबाज़ी में बदलेंगे. और मेरी राय में कांग्रेस से अच्छी डील हो सकती है. ऐसे ही क़ौम की रहनुमीइ करते रहें.

Thursday, September 25, 2008

फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर

शुक्रवार, 19 सितंबर, 2008 को 14:40 GMT तक के समाचार
अब्दुल वाहिद आज़ाद बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए,

दिल्ली से फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर


दिल्ली का जामिया नगर इलाक़ा फिर सुर्खियों में छाया हुआ है. शुक्रवार की सुबह पुलिस मुठभेड़ में वहाँ दो संदिग्ध चरमपंथी मारे गए.
जामिया नगर में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ की ये कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी वहाँ वर्ष 2000 में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ हो चुकी है.
पिछले वर्ष भी इसी महीने में कथित तौर पर कुरान की तौहीन को लेकर पुलिस और आम लोगों के बीच झड़पें हुईं थीं और एक पुलिस चौकी को आग लगा दी गई थी।


मुस्लिम बहुल इलाक़ा
जामिया नगर एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है. जाकिर नगर, बाटला हाउस, जोगा बाई, ग़फ़्फ़ार मंज़िल, नूर नगर, ओखला गाँव, अबुल फ़ज़ल एनक्लेव और शाहीन बाग सभी जामिया नगर में पड़ते हैं.

ओखला गाँव को छोड़ दें तो सभी मुहल्लों में लगभग पूरी आबादी सिर्फ़ मुसलमानों की ही है.
इन इलाक़ों में अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हैं.
नब्बे के दशक में जब देश में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की लहर तेज़ थी तब दिल्ली के कई हिंदू बहुल इलाक़ो को छोड़ मुसलमान इस इलाक़े में बसते चले गए।


छात्रों की आबादी
आबादी घनी होती चली गई. अधिकारी मानते हैं कि ये शायद दिल्ली के सबसे तेज़ आबादी बढ़ने वाले इलाक़ों में से एक है.
दूसरी तरफ़ इसी इलाक़े में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित है. इस विश्वविद्यालय के कारण ये सिर्फ़ मुस्लिम बहुल इलाक़े के तौर पर ही नहीं बल्कि ऐसे इलाक़े के तौर पर भी जाना जाता है जहाँ पढ़े-लिखे मुसलमान रहते हैं.
हज़ारो की तादाद में छात्र भी वहाँ रहते हैं और वो समाज का एक अहम हिस्सा हैं. छात्र जामिया नगर के धार्मिक और राजनीतिक मामलों में काफ़ी सक्रिय भूमिका निभाते हैं.
इस सबके साथ देश में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जामात-ए-इस्लामी हिंद सहित अनेक मुस्लिम धार्मिक संगठनों और अन्य ग़ैरसरकारी संगठनों के दफ़्तर भी वहीं हैं।


सद्दाम, मोदी चर्चा का
देश-दुनिया में कहीं कुछ हो, अगर उसका संबंध मुसलमानों से हो तो उस इलाक़े में उसके पक्ष या विपक्ष में आवाज़ें उठनी लाज़मी हैं. सद्दाम, मोदी, कार्टून विवाद, सभी चर्चा का गरमागरम विषय रहे हैं.
जामिया नगर के बाटला हाउस चौक पर अक्सर धार्मिक और राजनीतिक जलसे जुलूस होते रहते हैं.
मैंने देखा है कि इन भाषणों में ऐसी अनेक बाते खुल कर बोली जाती है जिन्हें हर जगह पर सार्वजनिक तौर पर बोलना आसान नहीं है. इनमें 'हिन्दुत्व के प्रतीक' लाल कृष्ण अडवाणी और बाल ठाकरे की कड़ी आलोचना शामिल है.
हालाँकि वक्ताओं के अंदर का उबाल इन भाषणों में साफ़ ज़ाहिर होता है लेकिन आम लोगों का सरोकार इन सब बातों से कम ही होता है। एक बड़ी आबादी के बावजूद किसी भी जलसे जुलूस में मैंने 200-300 से अधिक लोग मौजूद नहीं देखे हैं.


उग्र रवैया और पुलिस की गश्त
जहाँ मुसलमानों की घनी आबादी के कारण कुछ लोग उग्र भी नज़र आते हैं तो पुलिस की निगरानी भी उस इलाक़े में बहुत ज़यादा रहती है. कई मुहल्लों में पुलिस हर समय गश्त लगाती रहती है.
जामिया नगर का काफ़ी इलाक़ा अनाधिकृत है और पुलिस से लेन-देन स्थानीय नागरिकों के लिए कोई असाधारण बात नहीं है. ऐसे में अनेक लोगों को लगता है कि पुलिस उनके साथ ज़्यादती बरत रही है. ये भावना इसलिए भी ज़्यादा होती है कि क्यों कि अधिकतर पुलिस वाले ग़ैर मुसलमान होते हैं.
अनाधिकृत कॉलोनी होने के कारण जामिया नगर के अनेक इलाक़ों में नागरिक सुविधाएँ - बिजली, पानी, सीवर और सड़को की हालत ख़राब है। लेकिन मुसलमानों में ये आम धारणा है कि सरकार मुस्लिम मुहल्ला होने के कारण 'सौतेला सुलूक' कर रही है. कई आम निवासी बातचीत में यह भी अक्सर कहते हैं कि ऐसा तो पूरे भारत में हो रहा है.


थाना आया पर सुविधाएँ नहीं
अनेक निवासियों का तर्क है कि पिछले वर्ष जब पुलिस और आम लोगों की झड़पें हुईं तो वहाँ थाना बना दिया गया.
कई जगह पर चिपकाए गए पोस्टरों में ये सवाल उठाए गए हैं कि सड़क, बिजली, पानी, सीवर, अस्पताल और स्कूल की ख़राब हालत कब सुधरेगी.
वहाँ के मुसलमान निवासी ये कहते हैं कि जब भी देश में धमाका होता है तो डर लगने लगता है क्योंकि पुलिस अक्सर कई लोगों को पूछताछ के लिए उठाकर ले जाती है.
दिल्ली बम धमाकों के बाद भी यहाँ से दो लोगों को पूछताछ के लिए पुलिस ले गई थी. वो दोनों पढ़े लिखे थे. इस घटना के बाद पढ़ा-लिखा वर्ग भी सहमा हुआ है.
शुक्रवार की मुठभेड़ से इलाके में क्या माहौल बनता है ये तो देखना बाक़ी है लेकिन ग़ौरतलब है कि पिछले पाँच साल से इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदू छात्रों की संख्या बढ़ रही है. भय सा लगता है कि कहीं इस पनपती साझा संस्कृति पर विराम न लग जाए.