Wednesday, October 1, 2008

भारत में सेक्स को बहुत अहमियत नहीं

बुधवार, 01 अक्तूबर, 2008 को 13:29 GMT तक के समाचार
अब्दुल वाहिद आजादा बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए, दिल्ली से
बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के सौजन से
एशिया और प्रशांत क्षेत्र के देशों में कराए गए एक सर्वेक्षण में कहा गया कि भारतीयों के जीवन में अब भी सेक्स का कोई अहम स्थान नहीं है.
पुरुषों की 17 प्राथमिकताओं में सेक्स का स्थान सातवाँ है जबकि महिलाओं की 14 प्राथमिकताओं में यह लगभग सबसे निचले स्तर पर है.
भारत में महिलाओं और पुरूषों की प्राथमिकताओं में परिवार सबसे ऊपर है.
भारत में ये सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई और पुणे में किया गया. तमाम प्रश्न अंग्रेजी में किए गए थे जो इस बात की तरफ़ इशारा करते हैं कि इस सर्वेक्षण में शहरी और पढ़े-लिखे भारतीयों को शामिल किया था.
सर्वेक्षण से पता चला है इस महादेश के 13 देशों में 50 प्रतिशत से ज़्यादा पुरुष और 60 प्रतिशत से ज़्यादा महिलाएँ अपने यौन जीवन से संतुष्ट नहीं हैं.
एक दवा कंपनी की ओर से कराए गए इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट एशिया-पैसिफ़िक सेक्सुअल हेल्थ ऑवर ऑल वेलनेस यानी ‘एपीशो’ नाम का ये सर्वेक्षण बुधवार को दिल्ली में को जारी की गई.
सर्वेक्षण में भारत सहित आस्ट्रेलिया, चीन, हॉंगकॉंग, इंडोनेशिया, जापान, मलेशिया, फ़िलीपींस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, ताईवान, थाइलैंड और न्यूज़ीलैंड जैसे देश शामिल थे.
भारत का हाल
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 72 प्रतिशत पुरुष और महिलाएँ अपने यौन जीवन से संतुष्ट हैं.
हालाँकि सर्वेक्षण के अनुसार भारत के शहरों में रहने वाले पचास प्रतिशत लोगों ने पर्याप्त यौन उत्तेजना न होने की शिकायत की और माना कि यह उनके सेक्स जीवन पर नाकारात्मक असर डालती है.
रिपोर्ट के मुताबिक़ उत्तेजना का स्तर और संभोग की संतुष्टि एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और जिन लोगों में उत्तेजना कम होती है उन लोगों में संभोग की इच्छा भी कम होती है.
सर्वेक्षण के जारी करने के बाद संवाददाताओं के सवालो का जवाब देते हुए ऐंडरोलोजिस्ट डाक्टर रुपिन शाह का कहना था," भारतीय संदर्भ में सर्वे ये बताता है कि जो व्यक्ति सेक्स लाइफ़ से पूरी तरह संतुष्ट हैं वे लोग अपने पूरे जीवन से भी कम असंतुष्ट हैं."
रिपोर्ट जारी करते हुए ऑस्ट्रेलिया की रोज़ी किंग का कहना था कि इस सर्वेक्षण का मक़सद सेक्सुअल हेल्थ के साथ-साथ सभी प्रकार के स्वास्थ्य को बेहतर करना है.
उनका कहना था, "ये सर्वेक्षण उन लोगों प्रोत्साहित करेगा जो झिझक रखते हैं. साथ ही, उत्तेजना की कमियों को दूर करने के बारे में भी मदद चाहने के लिए तैयार करना है."
ये सर्वेक्षण मई से जुलाई 2008 के बीच किया गया. सर्वेक्षण में लगभग चार हज़ार (दो हज़ार पुरुषों और दो हज़ार महिलाओं) लोगों को शामिल किया गया था.
सर्वेक्षण में भाग लेने वाले लोगों की आयु 24-74 के बीच थी.

Monday, September 29, 2008

जमिअत उलेमा-ए-हिन्द की सियासी सौदेबाज़ी

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद एक बात जो खुलकर के सामने आई कि जो लोग किसी ज़ुल्म और अत्याचार के बाद ख़ामोश तमाशाई बने रहते थे अब उन लोगों ने भी आवाज़ उठानी शुरू कर दी हैं.

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद सैंकड़ो लोगों और कई मुस्लिम संगठनों के चीफ़ से बाते करने का मौक़ा मिला.मेरी बातचीत में एक बात खुल कर सामने आई वो ये कि अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है.

लेकिन काफ़ी अचरज उस वक्त हुआ जब इस सिलसिले में मेरी बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी मुस्लिम संगठन होने का दावा करने जमिअत उलेमा-ए-हिन्द के कार्यकारी महासचिव मौलाना अब्दुल हमीद नुमानी से हुई.

उनके कहने का लुबे लुबाब ये था कि पुलिस के अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़्यादा हो होहल्ला करने की आवाश्यता नहीं है. उनका तर्क था कि हमने राजनैतिक डील के बाद गुजरात में उन सैंकड़ो लोगों को रिहाई दिलवाई है जो गोधरा कांड में अभियुक्त थे.

दिलचसप बात ये है कि जब उनसे पुछा गया कि मुठभेड़ जैसे मामलो पर क़ानुनी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है तो उनका कहना था कि ऐसी चीज़ों को ख़ामोशी के साथ लड़ने की आवशयकता है. उन्होने कहा कि जो लोग ज़्यादा चिल्ला रहे हैं दरअसल काम कुछ नहीं कर रहे हैं.

जिनको थोड़ी सेयासी समझ है और जो लोग जमियत के इतिहान को थोड़ा बहुत जानते हैं उन्हे मौलेना नुमानी के बातों से अंदाज़ा लग गया होगा के असल में मनुमानी साहब कहना क्या चाहते हैं.

याद दिला दू के जब 2004 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे तो तब भी मई 2003 में जमिअत नें एक अधिवेशन बुलाया था और एक मुस्लिम सेयासी जमाअत बनाने की बात कही गई थी. जानकारों की राय में दरअसर वो अधिवेशन एक सेयासी सौदे बाज़ी थी.

2009 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो अप्रैल 2008 में देवन्द में भी आतंकवाद विरोधी कंवेनशन हुआ. मीडिया ने तारिफ़ की लेकिन पसे परदा उसका भी मक़सद सेयासी था जिसपर कोई सवाल नहीं उठाया ये अलग बात है.

आज की बात का जो सार था वो ये कि सेयासी सौदेबाज़ी ही मामले का हल है. मुझे ऐसा लगता है कि जामिया मुठभेड़ भी जमिअत के लिए एक अचछा मौक़ा है और अब वो इस मामले को सेयासी सौदेबाज़ी में बदलेंगे. और मेरी राय में कांग्रेस से अच्छी डील हो सकती है. ऐसे ही क़ौम की रहनुमीइ करते रहें.

जमिअत उलेमा-ए-हिन्द का सियासी सौदेबाज़ी

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद एक बात जो खुलकर के सामने आई कि जो लोग किसी ज़ुल्म और अत्याचार के बाद ख़ामोश तमाशाई बने रहते थे अब उन लोगों ने भी आवाज़ उठानी शुरू कर दी हैं.

जामिया नगर में हुई तथाकथित मुठभेड़ के बाद सैंकड़ो लोगों और कई मुस्लिम संगठनों के चीफ़ से बाते करने का मौक़ा मिला.मेरी बातचीत में एक बात खुल कर सामने आई वो ये कि अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है.

लेकिन काफ़ी अचरज उस वक्त हुआ जब इस सिलसिले में मेरी बात हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी मुस्लिम संगठन होने का दावा करने जमिअत उलेमा-ए-हिन्द के कार्यकारी महासचिव मौलाना अब्दुल हमीद नुमानी से हुई.

उनके कहने का लुबे लुबाब ये था कि पुलिस के अत्याचार के ख़िलाफ़ ज़्यादा हो होहल्ला करने की आवाश्यता नहीं है. उनका तर्क था कि हमने राजनैतिक डील के बाद गुजरात में उन सैंकड़ो लोगों को रिहाई दिलवाई है जो गोधरा कांड में अभियुक्त थे.

दिलचसप बात ये है कि जब उनसे पुछा गया कि मुठभेड़ जैसे मामलो पर क़ानुनी लड़ाई लड़ने की ज़रूरत है तो उनका कहना था कि ऐसी चीज़ों को ख़ामोशी के साथ लड़ने की आवशयकता है. उन्होने कहा कि जो लोग ज़्यादा चिल्ला रहे हैं दरअसल काम कुछ नहीं कर रहे हैं.

जिनको थोड़ी सेयासी समझ है और जो लोग जमियत के इतिहान को थोड़ा बहुत जानते हैं उन्हे मौलेना नुमानी के बातों से अंदाज़ा लग गया होगा के असल में मनुमानी साहब कहना क्या चाहते हैं.

याद दिला दू के जब 2004 में लोकसभा चुनाव होने वाले थे तो तब भी मई 2003 में जमिअत नें एक अधिवेशन बुलाया था और एक मुस्लिम सेयासी जमाअत बनाने की बात कही गई थी. जानकारों की राय में दरअसर वो अधिवेशन एक सेयासी सौदे बाज़ी थी.

2009 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं तो अप्रैल 2008 में देवन्द में भी आतंकवाद विरोधी कंवेनशन हुआ. मीडिया ने तारिफ़ की लेकिन पसे परदा उसका भी मक़सद सेयासी था जिसपर कोई सवाल नहीं उठाया ये अलग बात है.

आज की बात का जो सार था वो ये कि सेयासी सौदेबाज़ी ही मामले का हल है. मुझे ऐसा लगता है कि जामिया मुठभेड़ भी जमिअत के लिए एक अचछा मौक़ा है और अब वो इस मामले को सेयासी सौदेबाज़ी में बदलेंगे. और मेरी राय में कांग्रेस से अच्छी डील हो सकती है. ऐसे ही क़ौम की रहनुमीइ करते रहें.

Thursday, September 25, 2008

फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर

शुक्रवार, 19 सितंबर, 2008 को 14:40 GMT तक के समाचार
अब्दुल वाहिद आज़ाद बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए,

दिल्ली से फिर सुर्खियों में आया जामिया नगर


दिल्ली का जामिया नगर इलाक़ा फिर सुर्खियों में छाया हुआ है. शुक्रवार की सुबह पुलिस मुठभेड़ में वहाँ दो संदिग्ध चरमपंथी मारे गए.
जामिया नगर में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ की ये कोई पहली घटना नहीं है. इससे पहले भी वहाँ वर्ष 2000 में पुलिस और चरमपंथियों के बीच मुठभेड़ हो चुकी है.
पिछले वर्ष भी इसी महीने में कथित तौर पर कुरान की तौहीन को लेकर पुलिस और आम लोगों के बीच झड़पें हुईं थीं और एक पुलिस चौकी को आग लगा दी गई थी।


मुस्लिम बहुल इलाक़ा
जामिया नगर एक मुस्लिम बहुल इलाक़ा है. जाकिर नगर, बाटला हाउस, जोगा बाई, ग़फ़्फ़ार मंज़िल, नूर नगर, ओखला गाँव, अबुल फ़ज़ल एनक्लेव और शाहीन बाग सभी जामिया नगर में पड़ते हैं.

ओखला गाँव को छोड़ दें तो सभी मुहल्लों में लगभग पूरी आबादी सिर्फ़ मुसलमानों की ही है.
इन इलाक़ों में अधिकतर लोग उत्तर प्रदेश और बिहार से आकर बसे हैं.
नब्बे के दशक में जब देश में हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की लहर तेज़ थी तब दिल्ली के कई हिंदू बहुल इलाक़ो को छोड़ मुसलमान इस इलाक़े में बसते चले गए।


छात्रों की आबादी
आबादी घनी होती चली गई. अधिकारी मानते हैं कि ये शायद दिल्ली के सबसे तेज़ आबादी बढ़ने वाले इलाक़ों में से एक है.
दूसरी तरफ़ इसी इलाक़े में जामिया मिल्लिया इस्लामिया स्थित है. इस विश्वविद्यालय के कारण ये सिर्फ़ मुस्लिम बहुल इलाक़े के तौर पर ही नहीं बल्कि ऐसे इलाक़े के तौर पर भी जाना जाता है जहाँ पढ़े-लिखे मुसलमान रहते हैं.
हज़ारो की तादाद में छात्र भी वहाँ रहते हैं और वो समाज का एक अहम हिस्सा हैं. छात्र जामिया नगर के धार्मिक और राजनीतिक मामलों में काफ़ी सक्रिय भूमिका निभाते हैं.
इस सबके साथ देश में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जामात-ए-इस्लामी हिंद सहित अनेक मुस्लिम धार्मिक संगठनों और अन्य ग़ैरसरकारी संगठनों के दफ़्तर भी वहीं हैं।


सद्दाम, मोदी चर्चा का
देश-दुनिया में कहीं कुछ हो, अगर उसका संबंध मुसलमानों से हो तो उस इलाक़े में उसके पक्ष या विपक्ष में आवाज़ें उठनी लाज़मी हैं. सद्दाम, मोदी, कार्टून विवाद, सभी चर्चा का गरमागरम विषय रहे हैं.
जामिया नगर के बाटला हाउस चौक पर अक्सर धार्मिक और राजनीतिक जलसे जुलूस होते रहते हैं.
मैंने देखा है कि इन भाषणों में ऐसी अनेक बाते खुल कर बोली जाती है जिन्हें हर जगह पर सार्वजनिक तौर पर बोलना आसान नहीं है. इनमें 'हिन्दुत्व के प्रतीक' लाल कृष्ण अडवाणी और बाल ठाकरे की कड़ी आलोचना शामिल है.
हालाँकि वक्ताओं के अंदर का उबाल इन भाषणों में साफ़ ज़ाहिर होता है लेकिन आम लोगों का सरोकार इन सब बातों से कम ही होता है। एक बड़ी आबादी के बावजूद किसी भी जलसे जुलूस में मैंने 200-300 से अधिक लोग मौजूद नहीं देखे हैं.


उग्र रवैया और पुलिस की गश्त
जहाँ मुसलमानों की घनी आबादी के कारण कुछ लोग उग्र भी नज़र आते हैं तो पुलिस की निगरानी भी उस इलाक़े में बहुत ज़यादा रहती है. कई मुहल्लों में पुलिस हर समय गश्त लगाती रहती है.
जामिया नगर का काफ़ी इलाक़ा अनाधिकृत है और पुलिस से लेन-देन स्थानीय नागरिकों के लिए कोई असाधारण बात नहीं है. ऐसे में अनेक लोगों को लगता है कि पुलिस उनके साथ ज़्यादती बरत रही है. ये भावना इसलिए भी ज़्यादा होती है कि क्यों कि अधिकतर पुलिस वाले ग़ैर मुसलमान होते हैं.
अनाधिकृत कॉलोनी होने के कारण जामिया नगर के अनेक इलाक़ों में नागरिक सुविधाएँ - बिजली, पानी, सीवर और सड़को की हालत ख़राब है। लेकिन मुसलमानों में ये आम धारणा है कि सरकार मुस्लिम मुहल्ला होने के कारण 'सौतेला सुलूक' कर रही है. कई आम निवासी बातचीत में यह भी अक्सर कहते हैं कि ऐसा तो पूरे भारत में हो रहा है.


थाना आया पर सुविधाएँ नहीं
अनेक निवासियों का तर्क है कि पिछले वर्ष जब पुलिस और आम लोगों की झड़पें हुईं तो वहाँ थाना बना दिया गया.
कई जगह पर चिपकाए गए पोस्टरों में ये सवाल उठाए गए हैं कि सड़क, बिजली, पानी, सीवर, अस्पताल और स्कूल की ख़राब हालत कब सुधरेगी.
वहाँ के मुसलमान निवासी ये कहते हैं कि जब भी देश में धमाका होता है तो डर लगने लगता है क्योंकि पुलिस अक्सर कई लोगों को पूछताछ के लिए उठाकर ले जाती है.
दिल्ली बम धमाकों के बाद भी यहाँ से दो लोगों को पूछताछ के लिए पुलिस ले गई थी. वो दोनों पढ़े लिखे थे. इस घटना के बाद पढ़ा-लिखा वर्ग भी सहमा हुआ है.
शुक्रवार की मुठभेड़ से इलाके में क्या माहौल बनता है ये तो देखना बाक़ी है लेकिन ग़ौरतलब है कि पिछले पाँच साल से इस क्षेत्र में रहने वाले हिंदू छात्रों की संख्या बढ़ रही है. भय सा लगता है कि कहीं इस पनपती साझा संस्कृति पर विराम न लग जाए.

Wednesday, September 3, 2008

बिहार बाढ़: महान भारत का सच

पिछले सोलह दिनो से बिहार के सोलह ज़िले बाढ़ की मार झेल रहे हैं. और आज भी कम से कम 20 लाख लोग सुरक्षित स्थान की तलाश कर रहे हैं और लाखो लोग भुखे प्यासे पानी में ही रहने को मजबूर हैं.

यह हाल उस भारत के वासी का है जिस देश की आथिक प्रगति कुछ दिनो पहले तक दो अनकों में हो रही थी. और कहा जाता रहा है कि भारत एक सुपर पावर बनता जा रहा है. जिस देश का रक्षा बजट एक लाख करोड़ से ज़्यादा का है. देश के पास परमाणु बम है. दक्षिण ऐशिया मे एक उभरता और सामरिक दृष्टीकोण से प्रमुख देश है उस दे के एक प्रांत की जनता का इस तरह से भुखे प्यासे बिलबिलाने पर मजबुर हुई है वह तरस खाने के लायत है.

सरकारी सहायता पर एक नज़र डाले तो चमकते और सुपर भारत की सच्चाई सामने आ जाऐगी.

कुल प्रभावितो कि संख्या 40 लाख, सुरक्षित स्थान की तलाश में फंसे लोगे कि संख्या 20 लाख. सहायता के लिए 11 हेलिकॉप्टर लगाए गऐ है जो खाद्यसामग्री के पाकेट गिरा रहे हैं. मान लिया जाए के 20 लाख लोगो को ही खाने का पाकट गिराना हो तो एक हेलीकॉप्टर को कम से कम 181000 लोगो का खाना गिराना होगा, आप बताऐ क्या यह एक हेलीकाप्टर के लिए मुमकिन है.

लोगो को निकालने के लिए के डेढ़ सौ मोटर बोट और 1400 नाव लगाए गए हैं. यानी 20 लाख लोगो को सुरक्षित स्थान पर पुहंचाने के लिए के सिर्फ 1550 नाव.
यानी एक नाव से लगभग 1300 लोगो को निकालने का काम किया जा रहा है. जबकि एक नाव से एक समय में 20- 25 लोगो को निकाला जा सकता हैं.

सेना कि 20 टुकरियॉ बचाव कार्य पर लगाई गई हैं। एक टुकरी में ८० फोजी होते हैं ऐसे में ४० लाख लोगो के लिए १६०० फौजी, वाह रे सहायता.

आप बताए क्या यही सुपर और महान भारत है?

Sunday, August 31, 2008

क्या सम्पादक दलाल होते हैं?

शायद यह सवाल आप को परेशान करे लेकिन मैं भी परेशान हुँ कि शायद कहीं सम्मान जनक पेशे के सौदागरो को भी इस इल्ज़ाम से अपनी पोल खुलती नज़र आए और वह अपने अन्दर सुधार की बात सोचें.

समाज को सही रासता दिखाने वाला और समाज में हो रही किसी गलत काम पर लगाम लगाने वाला जब खुद ही इस तरह के काम पर ऊतारु हो जाए तो अफसोस होता ही है. बल्कि सम्मान जनक पेशे में शामिल व्यक्ती को सौदागर और दलाल तक कहने के लिए मजबूर होना पड़ता है. यह शब्ज के चुनाव पर हमें निजी तौर पर अफसोस है.

आप देखेंगे के हर अख़बार के सम्पादक को मोटी रकम दी जाती जाती है. लेकिन अख़बार में करने वाले छोटे पत्रकारो एवं सब ऐडिटरो को बहुत कम पैसे दिए जाते हैं. कारण यह नही है कि मैनेजमेंट उम्हे कम पेसे देना चाहता है. बल्कि अख़बार का सम्पदक यह कहता है कि काम कैसे कराना है (यामी कम पैसे में) यह हम तैय करेंगे.

उस समय सम्पादक के ज़ेहन मे यह बात कतई नही आती के अफसर और नौकर की ही तरह यहाँ भी तनख़ाह का पैमाना रखा जाए.

आप को याद होगा के छठे वेतन आयोग ने तनखाहो का जो नया पैमाना तैय किया है उस के मुताबिक एक सबसे छोठे दर्जे के मुलाजिन को अगर 10,000 तनखाह दी जाएगी तो सबसे बड़े अफसर को उससे दस गुणा एक लाख की तनखाह दी जाएगी.
इस पर कई अखबारो नें अपनी चिनता जताइ थी और उसे ऊचनीच बढ़ाने वाला कहा था.

लेकिन उन्हे अपने यहॉ की खाई का ख्याल तक नहीं आता. एक अखबार में जो तन्खाह एक पत्रकार को मिलती है उससे 25 गुणा ज़्यादा तन्खाह सम्पादक को मिलती है. कारण साफ है कि सम्पादक एक दलाल की भुमिका में आ जाता है और वह मेनैंजनेट को कहता है कि चिनता छोड़ो पाँच बड़े अधिकारियो को इतनी रकम दो. बाकी को हम देखेगे और मैं अख़बार चला दुंगा. और इस तरह एक नौकर की तन्खाह पर पत्रकार काम करने को मजबुर हो जाता है.

आप बताए ऐसे सम्पादक को आप क्या कहेंगे?

Saturday, August 30, 2008

क्या बिहारी समाज एक करुर समाज है?

बिहार में बाढ़ की त्रासदी अपरिहार्य तौर पर एक बड़ी वीपत्ती है. सरकारी सहायता की कमी, नेपाल से पानी छोड़े जाने की जानकारी पहले से नहीं मुहिया करना से लेकर राजनैतिक पारट्रियो की आपसी रश्सा कशी निंदनीय है. लेकिन इस बीच एक बड़ा प्रश्न खुद बिहारियो के आचरण को लेकर है. जो खबरे आरही है उसके मुताबिक गरीब और कमजोर लोगो के साथ बाहुबल बहुत अत्याचार कर रहे हैं. साथ ही चोर भी अपना हाथ साफ कर रहे हैं.

सरकारी अमले द्रवारा बाढ़ में फंसे गरीब लोगो को बाहार निकालने मे दोहरा पैमाना अपनाया जारा है. उन्हे मरने के लिए छोड़ दिया गया है. उनके नाव को छीन लिया गया है. साथ ही उन इलाको की तरफ जाने वाली नावो को भी रोक कर अमीर अपनी दादागिरी देखा रहे है. गरीब सहायता के लिए तरस रहे हैं. लेकिन हम उन्हे मरने के लिए छोड़ कर अपने को एक बहादुर कोम साबित करने मे लगे हुऐ है. वाह रे बिहारी मानवता.

सबसे दुखद पहलु यह है कि इस बुरे वक्त में लोग सुरक्षित स्थान की तरफ जा रहे लोगो के सामान की चोरी भी कर रहे हैं जोकि एक करुर बिहारी समाज की झलक पैश कर रहा है. इस विपत्ती के समय हमें अपने बुरे आचरणो को भी देखना चाहिए.

शाद आप को लेगो को लगे के किसी एक घटना के बाद पुरे समाज को सवालो के कटघरे मे डालना कहॉ का इन्साफ है तो मै आप को बता दु के इस से पहले भी हमने ऐसी ही हरकते बिहारी समाज में देखी हैं.

मैं अपने बचपन के समय को याद करता हुँ तो भी एक कुरुर बिहार की छवी ऊभरती है. मुझे याद पड़ता है कि मेरे गाँव मे आग लगी थी गाँव के बड़े आग पर काबु पाने की कोशिश कर रहे थे जबकि कुछ लोग अपने अपने घरों से सामान बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे. इस काम मे महिलाए भी उनकी सहायता कर रही थीं. लेकिन इस बीच सबसे दुखद घटना यह घटी के जिस सुरक्षित स्थान पर सामान लाकर रखा जारहा था वहाँ से सामान गायब हो रहे थे आप अन्दाजा लगा सकते है कि यह सामान अपने आप तो गायब नही हो रहे थे. जी यही हमारा समाज है.

Friday, August 29, 2008

बाढ़ की त्रासदी. यह कहानी पुरानी है


सा़वन के महीनें में बहुतों को खुली धूप में आकाश में बदरी के उठने, फूर्ती के साथ छा जाने और फिर छमाछम बूंदे गिरने का नज़ारा बड़ा दिलक्श लगता हो लेकिन देश में एक बड़ी आबादी के लिए यह महीना अभिशाप की तरह है.

जब सावन की बौछार बाढ़ का रूप धारण करती है तो विशेष कर उत्तर भारत की बड़ी आबादी को घर उजड़ने से लेकर विस्थापन की एक लम्बी त्रास्दी का सामना करना पड़ता है.

इस समय इसी त्रासदी से कोसी नदी के नए और पुराने धाराओं के आस पास बसे लोगो का सामना हो रहा है. बिहार के तीन ज़िले अररिया, सुपौल और सहरसा के 20 लाख से ज़्यादा लोग बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं.

कोसी नदी के उग्र होने से गॉव के गॉव बह गऐ हैं. साप और बिच्छू घर बाहर फैले हुए हैं. जीवन सावन की ठिठोली में भी नरक हना हुआ है. सच है कि तातकालिक त्रास्दी का कारण कोसी नदी का धारा परिवर्तन है लेकिन इस तरह की त्रासदी से उत्तर भारत कि बङी आबादी को हर बरस रुबरु होना पड़ता है. पिछले वर्ष भी उन्हे इसी तरह की त्रासदी से जूझना पड़ता था और सेंकड़ो लोगो को जान गवानी पड़ी थी.

लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या कारण हैं कि भारत में लोगे को प्रत्यक वर्ष ऐसी जानलेवा बाढ़ से जूझना पङता है. जबकि देश के एक बङे भाग में पानी की कमी के कारण सूखा पङना भी आम बात है.

जानकार बताते हैं कि गंदी राजनीति और राष्टीय नीति के अभाव के कारण परियोजनाओं के सवरुप तय करने और उसके क्रियानवयन में दिक्कते आती हैं और इस तरह जनता की परेशानी का निदान नही हो पाता है.

धीमी धीमी पुरवैया जब चलती हैं काले काले बादलों से आकाश घिरने लगता है. फिर बूंदे शैने शैने रिमझिम रिमझिम धारासार का रुप ले लेती हैं आप का हमारा दिल अमराइयो के झुरमुठ पर झुले बांधने को कहता है लेकिन उस पार त्रासदी की एक आपार गाथा है. और शायद यही सच्चाई भी है.